शनिवार, 3 अप्रैल 2010


ये आंखें क्या कहतीं,
कुछ समझ नहीं आता..

ये आंखें क्या सोचतीं,
कुछ समझ नहीं आटा..

ये आंखें क्या कहतीं
कुछ समझ नहीं आता..

बस इनमें डूब जाऊ,
ये समझ आता..

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

सभी को नए साल की शुभकामनायें

सबसे पहले सभी को नए साल की ढेर सारी शुभकामनायें. इन पंक्तियों के रचनाकार हेलन को मैं नहीं जनता हूँ। लेकिन उन्होंने जो लिखा है वो आज प्रासंगिक है। हम आज किसी भी सुन्दर चीज देख नहीं सकते है, सिर्फ महसूस कर सकते है। शायद इसी कारण से देश में सिर्फ महंगाई, भ्रष्टाचार और गरीबी ही दिखाई देती है। नए साल पर हम सभी को शुभकामनायें देते हैं, लेकिन पुराने साल की अव्यवस्थाओं को भूल जाते हैं। ये ठीक भी है, फिर भी शुभकामनायें देने के इतर हमें नए साल में पुराने साल के दुखद घटनाक्रम न घटने का संकल्प लेना चाहिए। पुराने साल की घटनाओं की याद दिताला है। शायद आपको ठीक न लगे पर यह सच है। ये कविता मेरे एक दोस्त ने भेजी है। बुरा लगे तों माफ़ करियेगा।
साल २००९ जा रहा है......!!
अमीरों को और अमीरी देकर
गरीबों को और ग़रीबी देकर
जन्मों से जलती जनता को
महंगाई की ज्वाला देकर
साल २००९ जा रहा है.....
अपनों से दूरी बढ़ाकर
नाते, रिश्तेदारी छुड़ाकर
मोबाइल, इन्टरनेट का जुआरी बनाकर
अतिमहत्वकान्क्षाओं का व्यापारी बनाकर
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा में
अपनों की सुपारी दिलाकर
निर्दोषों, मासूमों, बेवाओं की चित्कार
देकर साल २००९ जा रहा.....
नेताओं की मनमानी देकर
झूठे-मूठे दानी देकर
अभिनेताओं की नादानी देकर
पुलिस प्रशासन की नाकामी देकर
साल २००९ जा रहा.....

अंधियारा ताल ठोंककर
उजियारा सिकुड़ सिकुड़कर
भ्रष्टाचार सीना चौड़ाकर
ईमानदार चिमुड़ चिमुड़कर
अर्थहीन सच्चाई देकर
बेमतलब हिनाई देकर
झूठी गवाही देकर
साल २००९ जा रहा.....

धरती के बाशिंदों को
जीवन के साजिंदों को
ईश्वर के कारिंदों को
गगन के परिंदों को
प्रकृति के दरिंदों को
सूखा, भूखा और तबाही देकर
साल २००९ जा रहा.....
कुछ सवाल पैदाकर
कुछ बवाल पैदाकर
हल नए ढूंढने को
पल नए ढूंढने को
कल नए गढ़ने को
पथ नए चढ़ने को एक
अनसुलझा सा काम देकर
साल २००९ जा रहा.....
- हरिओम वर्मा

रविवार, 20 दिसंबर 2009

पता नहीं हम कब सुधरेंगे !

पता नहीं ये लिखना ठीक होगा या नहीं, मुझे नहीं मालूमफिर भी इसे नजरंदाज करने का मन नहीं कर रहा हैइस कारण से लिख रहा हूँयह अपनी पोल खोलने जैसी बात होगीचलिए सीधे मुद्दे पर आते हैंमैं और मेरी तरहमेरे तमाम साथियों ने अभी हाल में ही पत्रकारिता कि दहलीज के अन्दर कदम रखा हैहमने बाकायदा इसकीशिक्षा ली और इसके हर पहलु को जाना हैहाँ, लेकिन जो व्यावहारिक ज्ञान है वो इस दहलीज के अन्दर ही मिलरही है
हमें पढाई के दौरान सिखाया गया कि पक्षपातरहित होकर खबर लिखनी हैलेकिन ऐसा हो नहीं पता हैकहीं भी कोई रिपोर्ट लेने जाओ तों आदमी कुछ कुछ पकड़ा देता हैउसकी रिपोर्ट लिखते समय वह चीज यादरहती हैऐसे में कैसे वो रिपोर्ट पक्षपातरहित हो सकती हैमेरी समझ में नहीं आता। ऐसा किसी प्रेस कान्फेरेंसऔर कार्निवल में अक्सर होता है कि हमें वहां जाने पर कुछ कुछ मिल ही जाता हैलाख मना कीजिये लोग नहींमानते हैकोई मां होने की दुहाई देता है तों कोई बड़ा भाई होने काइन स्थितियों से कैसे बचा जाये मुझे नहींमालूमफिर भी कुछ स्थितियों को टला जा सकता हैदूसरी ओरएक दंभ कि नींव भी अन्दर पड़ चुकी है कि हमतों पत्रकार हैंहमारा हर काम फ्री और बिना कुछ किए ही होना चाहिएजैसे टिकट कि लाइन लगना पड़ेयाफिल्म देखने का पैसा देना पड़ेइतना ही नहीं अपने तों देखें ही दूसरों को भी दिखाएइसे छुपाने के लिए दूसरोंसे झूठ भी बोले। सब पढने के बाद भी हम ऐसा कैसे हो जाते हैं कि जो सिखा और समझा उसके उलट चलें। दूसरों की कमियों के पीछे पड़ रहते हैं, पर पता नहीं हम कब सुधरेंगे और पता नहीं शायद इन स्थितियों से खुद ही बच सकते हैं। या शायद बचना ही नहीं चाहते।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

इरोम शर्मीला के समर्थन में भोपाल में कैंडल लाइट विजिल

2 नवंबर, भोपाल। सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में इरोम शर्मिला ने दस साल पहले आज ही के दिन मणिपुर में आमरण अनशन शुरू किया था। उन्हें सरकार ने घर में ही नजरबन्द कर दिया था और जबरन नाक के रास्ते खाना खिलाया था। वह सैन्य बल (विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 की वापसी की मांग कर रही हैं। दरअसल मणिपुर में भारत सरकार का सैन्यबल (विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 कानून वहां पर महिलाओं और आम नागरिकों पर खुली छूट देता है। पिछले एक दशक में मणिपुर में फर्जी इनकाउन्टर, महिलाओं के साथ बलात्कार, छेड़खानी और हत्याओं में लगातार वृद्धि हुयी है। इसके खिलाफ सैन्य मुख्यालय के समक्ष निर्वस्त्र प्रदर्शन और देश भर में विरोध के बावजूद सरकार की खामोशी और असंवेशीलता बरक़रार है। ऊपर से दूसरे राज्यों में ऐसे कानून बनायें जाने की कोशिशें जारी हैं।
इस मौके पर युवा संवाद और मध्य प्रदेश महिला मंच की ओर से इरोम शर्मिला ओर उनके साथियों के समर्थन में कैंडल लाइट विजिल का आयोजन ज्योति टॉकीज के पास किया गया। कार्यक्रम में लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करने वाले सैन्यबल (विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 जैसे तमाम कानूनों को वापस लिए जाने की मांग की। यहाँ इस बात का भी जिक्र किया गया कि नर्मदा घाटी के कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेकर कायरता का काम किया गया है। इस घटना के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठे रामकुंवर और चित्रूपा पालित का समर्थन करते हुए दोनों संगठनों ने इस बात कि भर्त्सना की कि सरकार अपना जायज हक़ मँगाने वाले को ही देशद्रोही करार देने पर तुली हुयी है। इस आयोजन में बड़ी तादाद में लोगों ने मोमबत्ती जलाकर अपनी सहभागिता दर्ज की। कार्यक्रम में प्रगतिशील लेखक संघ, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, सन्दर्भ केन्द्र, जन पहल, बचपन, मध्य प्रदेश शिक्षा अभियान, नागरिक अधिकार मंच, पीपुल रिसर्च सोसाईटी और मुस्कान अदि संगठनों ने अपनी एकजुटता दिखाई।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नहीं हैं हम

इधर तो काफी दिन हो गये कुछ लिखा नहीं मैंने. इस कारण से एक अच्छी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ. यह रचना विनोद श्रीवास्तव की है, इन्हें मैं नहीं जनता हूँ. लेकिन इनकी कविता के माध्यम से इन्हें जान गया हूँ. ये कविता मेरे दोस्त मनोज ने (भोपाल से) मुझे भेजी है. उम्मीद है आपको पसंद आएगी..
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
पिंजरे जैसी इस दुनिया में,
पंछी जैसा ही रहना है,
भर पेट मिले दाना-पानी,
लेकिन मन ही मन दहना है,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे संवाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
आगे बढ़नें की कोशिश में,
रिश्ते-नाते सब छूट गये,
तन को जितना गढ़ना चाहा,
मन से उतना ही टूट गये,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
पलकों ने लौटाये सपने,
आंखे बोली अब मत आना,
आना ही तो सच में आना,
आकर फिर लौट नहीं जाना,
जितना तुम सोच रहे साथी,
उतना बरबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
आओ भी साथ चलें हम-तुम,
मिल-जुल कर ढूंढें राह नई,
संघर्ष भरा पथ है तो क्या,
है संग हमारे चाह नई
तुम सोच रहे साथी,
वैसी फरियाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
कैसी लगी? उम्मीद है कि पसंद आई होगी. तो फिर मिलते हैं.

सोमवार, 28 सितंबर 2009

बरेली से जुड़े रहे हैं शहीद-ए-आजम के तार

बरेली। बरेली से भी जुड़े है भगत सिंह के तार। यह लाइन पढ़कर काफी लोग अचरज करेंगे, लेकिन यह सही है। चौंकिए मत, भगत सिंह कभी बरेली नहीं आए पर यहां कुछ ऐसी शख्सियतों ने समय बिताया है या वे आए हैं, जिनका स्वतंत्रता आंदोलन के इस कालजयी शख्सियत से सीधा संबंध रहा है। 28 सितंबर को शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह का जन्मदिन है। आज के दिन हमने शहर के कुछ बुद्धिजीवियों से बात की कि वे भगत सिंह को किस नजरिए से देखते हैं। साथ ही उन तारों को छूने का प्रयास किया, जो कहीं न कहीं बरेली से जुड़े हुए हैं।
चाचा अजीत सिंह ने की है पढ़ाई
बरेली को भगत सिंह से जोड़ते हुए लेखक और साहित्यकार सुधीर विद्यार्थी ने कहा कि भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने यहां एक साल रहकर बरेली कालेज में कानून की पढ़ाई की है। भगत सिंह के चाचा अपने समय के बहुत बड़े क्रांतिकारी रहे हैं, लेकिन वे केवल एक साल ही यहां रह पाए थे। बाद में वे नेपाल चले गए।
साथी की हुई गिरफ्तारी
सुधीर विद्यार्थी इन तारों को जोड़ते हुए कहते हैं कि भगत सिंह के एक साथी विजय कुमार सिन्हा की गिरफ्तारी बरेली में ही हुई थी। साथ ही भगत सिंह की पार्टी नौजवान भारत सभा के सदस्य भगवती चरण वोहरा नाटककार उदय शंकर भट्ट के साथ बरेली में रहे थे। बाद में उन्होंने बम का दर्शन किताब लिखी, जो गांधीजी के लिखे गए कल्ट आफ बम पुस्तक का जवाब थी। उन्होंने कहा कि विजय कुमार सिन्हा ने भगत सिंह को जेल से छुड़ाने के लिए योजना बना ली थी, लेकिन उनका प्रयास असफल रहा और गलती से बम फट जाने से वे मारे गए।
क्लीनिक को किया भगत सिंह के नाम
श्री भगत सिंह नेत्र चिकित्सालय चलाने वाले डॉ. हरवंश सिंह ने भगत सिंह से प्रभावित होकर अपने क्लीनिक का नाम ही श्री भगत सिंह नेत्र चिकित्सालय रख दिया। इसके पीछे की कहानी बताते हुए डॉ. सिंह कहते है कि पटियाला मेडिकल कालेज में पढ़ाई के दौरान उन्होंने भी एक नौजवान सभा बनाई थी। फिर उसके बाद जब वे डाक्टर बन गए तो कुछ साथियों के साथ मिलकर राष्ट्रीय दृष्टि विहीनता निवारण संस्था की एक मोबाइल यूनिट बनाई, जो गरीबों का इलाज किया करती थी। इसकी लोकप्रियता बढऩे पर किराए के मकान में अस्पताल शुरू किया। बाद में सिल्वर स्टेट के सामने जमीन खरीदकर अस्पताल का निर्माण कराया और उसको भगत सिंह को समर्पित किया।
भगत सिंह एक नजर में
सुधीर विद्यार्थी ने कहा कि भगत सिंह भारतीय उपमहाद्वीप के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने समाजवाद को विकास के लिए आवश्यक बताया। उनकी समाजवादी व्याख्या उनके जाने के बाद वहीं की वहीं ठहर गई, इसे युवाओं और राजनैतिक कर्मियों को आगे बढ़ाना चाहिए था। उनके सपनों का हिंदुस्तान नहीं बन सका।
वरिष्ठ पत्रकार धर्मपाल गुप्त शलभ ने कहा कि भगत सिंह युग प्रवर्तक क्रांतिकारी थे। उन्होंने जनवादी लोकतांत्रिक सरकार की कल्पना की थी, जो कल्पना ही रह गई। क्रांतिकारी आंदोलन में जनता की स्वतंत्रता को बल दिया था।
लेखिका जेबा लतीफ ने कहा कि भगत सिंह एक विचारधारा हैं, जो अमर हैं। उनके पास भारत की स्वतंत्रता और उसके बाद समाज के विकास की पूरी रूपरेखा थी, जिस पर आज तक अमल नहीं किया जा सका।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

कुछ छूट सा रहा है..

कुछ छूट सा रहा है,
बाकी सब ठीक है.
कोई दूर सा हो रहा है,
बाकी सब ठीक है.
जीवन में अँधेरा सा छा रहा है,
बाकी सब ठीक है.
अब नहीं सुनाई पड़ेगी
वो,
हंसी की खनक,
न ही
बात-बात पर
पड़ने वाली डांट
जो धीरे-धीरे दे रहे थे
मुझे नया जीवन,
मेरी कमियों को बताकर
उनको दूर भगाकर.
पर
समय की करवट से
रेत सा कुछ हाथ से
फिसल रहा है,
बाकी सब ठीक है.
कोई दूर सा हो रहा है,
बाकी सब ठीक है.
अब किस पर मढू
ये दोष,
समय पर या की खुद पर.
जो संभाल न सका
उन लम्हों को उन रिश्तों को.
शायद मेरी ही कमी से
कुछ छूट सा रहा है,
कोई दूर सा हो रहा है.
फिर, क्यों
मैं कह रहा हूँ
कि
बाकी सब ठीक है..

इस पोस्ट को लिखने और इसके पहले के पोस्ट के बीच समय का काफी अंतर है. काफी समय से मैं अपने ब्लॉग से दूर रहा. शायद नाराज था. इस बारे में ठीक से कुछ कह नहीं सकता हूँ. पर इस बार कुछ लिखने में काफी समय लग गया. अवसाद की बदली छा गयी थी जीवन में. कॉलेज लाइफ ख़त्म हो गयी. अब शायद जीवन शुरू हुआ है. जिम्मेदारियां शुरू हुयी हैं. थोड़ा दुःख है अभी भी की जो लड़कपन और अल्हड़पन था सब अब धीरे-धीरे छूट रहा है. घर से दूर मैंने एक घर बनाया था, रिश्तें बनाएं थे, दोस्त बनाएं थे, ऐसा लग रहा है कि सब मुझसे दूर हो रहे हैं. सेमेस्टर, एक्जैम, असाईनमेंट, सब ख़त्म हो गया है. इसी पर एक कविता लिखने को मजबूर होना पड़ा. हालाँकि, मैं इस कविता का लेखक नहीं होना चाहता था पर और क्या करता. जब सब दूर हो रहे होते हैं तो मेरी अलिखित कविताएं, जिनके बारे में मैं कभी सोचता नही हूं. दिमाग के सामने नाचने लगते है और मुझे फिर इन शब्दों का जाल बुनना पड़ता है. खैर, इस लंबे अंतराल के दौरान मैंने समय और जीवन के उतार-चदाव को समझने और आत्मसात करने का प्रयास किया है. सच पूछिए तो अब मुझे लगता है कि यही तो जीवन है जिसमे सब कुछ है सुख-दुःख, दूर-पास आदि. इसके साथ ही मैं जिन रिश्तों के छूटने के कारण दुखी हो रहा था वास्तव में वो रिश्तें, नाते और दोस्ती कही न कही और मजबूत हो रही थी. एक कभी न टूटने वाला संबंध बन रहे है. फिर दुःख कैसा? है ना, तो फिर मिलते है पर इस जल्दी मिलेंगे..